Thursday, 19 May 2016

उज्जैन ‘घट-घट में कुंभ’ राग गूंज रहा है।

उज्जैन महाकाल की नगरी है। यहां घट-घट में महाकाल की महिमा गूंजती है। लेकिन सिंहस्थ के मौके पर जब लोगों से मिला तो लगा कि इस बार ‘घट-घट में कुंभ’ राग गूंज रहा है 



उज्जैन में आस्था के महाकुंभ में इस बार युवाओं का उत्साह देखने लायक है। वे न सिर्फ शांति पाना चाहते हैं, बल्कि जीवन के उत्सव का आनंद भी ले रहे हैं। 21 मई को शाही-स्नान है। उज्जैन महाकाल की नगरी है। यहां घट-घट में महाकाल की महिमा गूंजती है। लेकिन सिंहस्थ के मौके पर जब लोगों से मिला तो लगा कि इस बार ‘घट-घट में कुंभ’ राग गूंज रहा है।

अर्थात प्रत्येक व्यक्ति कुंभ के रंग में रंगा है। देव-दानव संग्राम में अमृत-घट से छलकी बूंदों से महिमामंडित तीन स्थानों-प्रयाग, हरिद्वार और नासिक के उत्सव तो कुंभ हैं ही, लेकिन चौथी नगरी उज्जैन का कुंभ सिंहस्थ भी कहलाता है, क्योंकि उस समय गुरु सिंहस्थ (सिंह राशि में) होते हैं। वैसे जब-जब उज्जैन जाता हूं तो गुरु सदैव गूंजते हैं।

उज्जैन से ठीक पहले देवास आता है, कुमार गंधर्व का नगर, जो उनके गाए गीतों से आज भी वाबस्ता है। वहां से गुजरा, तो उनका गाया भजन ‘गुरु जी जहां बैठूं वहां छाया दी’ कहने लगा कि इस अमर आवाज की स्मृति-छाया में कुछ पल बिताओ! कैसे इंकार करता? कुछ वक्त रुका रहा, लेकिन उज्जैन पहुंचा तो वहां सिंह में विराजे गुरु पर दहाड़ रहे थे सूर्य। प्रखर धूप से शहर पसीना-पसीना हो रहा था, पर भरी दोपहरी में रामघाट जाते हुए जन-सैलाब के पांव आस्था की जिस चेतना से जुड़े थे, उसमें कोई धूप कहां लगती है! उस आस्था को निहारता-निहारता रामघाट पहुंचा तो घाट पर जैसे देश के कोने-कोने से पहुंची आस्था का सौंदर्य यत्र-तत्र-सर्वत्र था। पर इस जन-प्रवाह में सर्वाधिक सुखद था युवा वर्ग का तरंगित उत्साह, जो घाट पर भी था और क्षिप्रा की गोद में भी खिलखिला रहा था।

रामघाट पर स्नान करते युवाओं में भी वैविध्य था, लेकिन एक अद्भुत समानता भी थी। डुबकी लगाते वक्त अधिकतर युवा अपने किसी मित्र को अपना मोबाइल थमाकर तस्वीर लेने के लिए कह रहे थे और जल धारा से बाहर आने पर उस तस्वीर को शेयर करना उनमें से कई का पहला काम था। कुछ तो बदन पोंछने से पहले ही

संदेश लिखने में तल्लीन थे। मैंने संदेश देखे नहीं, पर जानता हूं कि इन दिनों चलन में है ‘एट उज्जैन एंजॉइंग कुंभ’।

आश्चर्य की बात यह थी कि तस्वीरें खिंचवाने में लड़कियां भी पीछे नहीं थीं। बस फर्क इतना था कि लड़के केवल अपनी तस्वीर खिंचवाना चाहते थे और लड़कियां समूह में। अवसर कुंभ का था। धर्म के महा-उत्सव का। पर यह देखना कितना सुखद है कि धर्म के क्षेत्र में खड़ा युवा तकनीक की नवीनता का भी आनंद ले रहा है। शायद जो भी धर्म नवीनता के विवेकी स्वरूप को स्वीकार करने की हिम्मत दिखाता है, उस धर्म का यौवन अमर हो जाता है।

तस्वीर खिंचवाते युवाओं को छोड़कर आगे बढ़ा तो छत्तीसगढ़ से आये युवा भाई-बहन सुमित और हर्षा से मुलाकात हुई। चौबीस- पच्चीस वर्ष की आयु। दोनों दिखने में आकर्षक। पढ़े-लिखे और संपन्न परिवार के सदस्य। दोनों पिछले दस दिनों से अपने आध्यात्मिक गुरु के पास रहकर अन्न-क्षेत्र में सेवा कर रहे हैं। उनसे पूछा कि सब कुछ होने के बाद भी यहां किस चीज की तलाश में हो, तो उन्होंने कहा- यहां बहुत शांति मिल रही है। अनेक महात्माओं के शिविर देखे, वहां कई हर्षा और सुमित हैं। सोचता हूं जवानी, पैसा, रूप, सफलता सब कुछ हो, तब भी शांति क्या किसी सेवा, किसी शरणागति, किसी सिंहस्थ में ही मिलेगी?

वैसे तो शास्त्र कहते हैं कि कुंभ स्नान से जन्म-जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं, लेकिन सिंहस्थ तो महाकाल की

नगरी का गौरव है और आध्यात्मिक चिंतन कहता है कि महाकाल काल का भी अतिक्रमण करते हैं, इसलिए

चेतना केवल पाप-पुण्य के आवरण से मुक्त नहीं होती, वरन अपने सहज स्वरूप से साक्षात्कार करती हुई ‘शिवोहम् शिवोहम्’ का उद्घोष करती हुई स्वयं शिवत्व धारण करती है। उसी शिवत्व को नमन करने के लिए

रामघाट से महाकाल के मंदिर तक जाते-जाते न जाने कितने दृश्य मन में सहेजे। पर एक बात का आनंद मन में

था कि शिव के दर्शन से पहले देह की शुद्धि राम घाट पर हुई। वर्षों तक शैव और वैष्णव के संघर्ष में कुंभ में हजारों

लोगों ने प्राण गंवाए। तब साहित्य ने धर्म को नवीनता की चेतना दी और ‘रामचरित मानस’ के माध्यम से सबसे

बड़ा काम किया तुलसी दास जी ने।

 ‘घट-घट में कुंभ’ राग गूंज रहा है।शैव और वैष्णव की दूरी मिटाती उनकी कृति के ‘उत्तरकांड’ का महत्वपूर्ण पड़ाव है महाकाल का मंदिर। महाकाल

को प्रणाम करके आगे बढ़ता हूं। कुछ साधु-संतों से मिलता हूं। कुछ के पास बेफिक्री है, लेकिन कई महात्मा चिंतित दिखे। कहने लगे क्षिप्रा में जल नहीं रहा। नर्मदा का जल डालकर उसे क्षिप्रा कह रहे हैं। कुछ अखाड़ों में हो रही लड़ाइयों से खफा मिले। कुछ आंधी- तूफान से हुए नुकसान को महाकाल का कोप बताते मिले।

सबकी सुनता-सुनता निनौरा आ गया। वैचारिक कुंभ में शिरकत का आमंत्रण था। प्रवचनों की बहार थी। लौटते वक्त स्टेशन पर बहुत भीड़ थी। कोई गाड़ी आती तो कई लोग चढ़ जाते, पर कई लोग छूट जाते। लोग गाड़ी छूट जाने पर दुखी न होकर गीत गाते हुए अगली गाड़ी का इंतजार करते। मैंने ट्रेन में बैठकर मन ही मन प्रार्थना दोहराई - हे मेरे महाकाल! मेरे देश के अनेक लोगों को अब तक कोई गाड़ी नहीं मिली है, उन्हें तुम गंतव्य

तक पहुंचना अवश्य...।

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