वृंदावन वह जगह है जहां भगवान कृष्ण का बचपन गुजरा। जहां उन्होंने गोपियों संग रास किया। कृष्ण भारत में आनंद के देवता भी हैं और जीवन में उमंग लाने वाले देवता भी। यही कारण है कि वृंदावन में प्रवेश करते ही यहां के कण-कण में भक्ति और प्रेम का अहसास होने लगता है...
वृंदावन की हवाओं में कुछ अलग-सा कृष्णमय संगीत है, मानो वह अब भी राधे-राधे की माला जप रही हों। दिल्ली से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर वृंदावन आना एक अलग अनुभव है। ऐसाअनुभव, जिस शब्दों में बांधना आसान भी नहीं। यहां जिस भी ओर जाएंगे, कृष्ण की भक्ति भावना में लीन मंदिरों और साधारण से आलीशान आश्रम पाएंगे। देश-विदेश के कृष्ण भक्तों की भीड़ पाएंगे। वृंदावन विधवाओं की भी नगरी बनती जा रही है, जो वैधव्य के बाद कृष्ण के चरणों में जीवन बिताने के लिए इस शहर का रुख करती हैं।
कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ। फिर लालन-पालन वृंदावन में। लिहाजा यहां हर ओर कृष्ण समाए हुए हैं। हर ओर राधे-राधे है। हर ओर रसपूर्ण भक्तिभाव की यमुना है। जिस तरह गंगा उत्तर भारत के तमाम पवित्र स्थानों की जीवनदायिनी है, उसी तरह यहां यमुना जीवनदायिनी और पापनाशिनी है। माना जाता है कि यहां नहा लेने से आपके पाप नष्ट हो जाते हैं।
बांकेबिहारी मंदिर
वृंदावन में यूं तो एक से बढ़कर एक मंदिर हैं और सभी अपनी छटा और खूबियां लिए हुए हैं, लेकिन बांकेबिहारी मंदिर की तुलना और किसी से नहीं की जा सकती। मंदिर बाहर से राजस्थानी शैली की शानदार हवेली की तरह
लगता है। अंदर कृष्ण की खास शैली की मूर्ति विराजमान है। यहां दर्शन की बड़ी महत्ता है। हालांकि सप्ताहांत के दिनों में यहां बहुत ज्यादा भीड़ होती है। अन्य दिन कुछ सुकून लिए होते हैं। तब आप यहां न केवल दर्शन कर सकेंगे, बल्कि मंदिर के अंदर कृष्ण की जादुई मौजूदगी को महसूस करेंगे। मंदिर के अंदरूनी हाल की रोजाना गुब्बारों और फूलों से खास सजावट होती है। खास बूंदी के प्रसाद से कन्हैया का सत्कार। भक्तिभाव में डूबे दर्शनार्थियों का राधे-राधे करते हुए विभोर होना। बांके बिहारी मंदिर का निर्माण वर्ष 1864 में स्वामी हरिदास
ने कराया था। श्रीहरिदास विषय उदासीन वैष्णव थे। उनके भजनकीर्तन से प्रसन्न हो निधिवन से बांकेबिहारी प्रकट हुए माने जाते हैं। बांके बिहारी मंदिर के बिल्कुल पास एक बहुत प्राचीन-सा ऊंचा गुंबदाकार मंदिर नजर आता है। गेरुए रंग का यह मंदिर मदन मोहन मंदिर है। कहा जाता है कि यह वृंदावन का पहलामंदिर था। औरंगजेब के शासनकाल में जब मथुरा और वृंदावन के मंदिरों को क्षति पहुंचाई जा रही थी, तब यहां से भगवान कृष्ण की मूर्ति को छिपाकर राजस्थान के करौली पहुंचा दिया गया। हमलावरों ने मंदिर शिखर व अन्य मूर्तियों
को छिन्न-भिन्न कर दिया। आज भी यह मंदिर खंडित अवस्था में है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने मंदिर की पौराणिकता व कला को देखते हुए इसे अपने संरक्षण में ले लिया है। मंदिर के पास बना काली घाट आज भी सुरक्षित है, परंतु यमुना यहां से लगभग एक किलोमीटर दूर चली गई है।
यमुना घाट
यमुना में कई घाट हैं। सबकी अपनी छटा है और अपना महत्व। हर घाट से जुड़ी बाल कृष्ण की कहानियां हैं। कुछ घाट गुजरे जमाने के गवाह मात्र हैं। कुछ की हालत खस्ता है और कुछ को पिछले कुछ सालों में फिर से ठीक किया गया है। लेकिन इन सभी घाटों पर जाने पर कृष्ण से जुड़ी कोई न कोई कहानी जरूर मिल जाएगी। किसी घाट पर कृष्ण पहली बार स्नान करने उतरे होंगे। किसी पर उन्होंने कालिया नाग को मारा होगा। किसी घाट पर गोपियों का वस्त्र हरण करके ले गए होंगे, यानी जितने घाट कृष्ण से जुड़ी उतनी कहानियां। वृंदावन से कुछ किमी. की दूरी पर अक्रूर घाट है और पास में ही अक्रूर गांव है। इसके बारे में एक प्रसंग प्रचलित है कि जिस समय अक्रूर जी नंदगांव से श्रीकृष्ण और बलदेवजी को रथ में बिठाकर मथुरा ले जा रहे थे, तब मार्ग में यमुना के किनारे रथ रोक कर स्नान करने की इच्छा हुई। अक्रूर जी महाराज बड़े ज्ञानी थे। लेकिन उन्हें इस बात की चिंता थी कि कृष्ण-बलराम कंस का सामना कर पाएंगे या नहीं। अक्रूर जी ने जब यमुना में डुबकी लगाई, तब पानी के अंदर उन्हें भगवान कृष्ण और बलराम के दर्शन हुए। लेकिन उन्होंने जब अपना सिर पानी से बाहर निकाल कर देखा तो दोनों भाई रथ पर विराजमान थे। फिर जब दोबारा उन्होंने डुबकी लगाई तो भगवान के चतुर्भुज रूप के दर्शन हुए। यही स्थान अक्रूर घाट (अनन्त तीर्थ) कहलाता है। बारह पुराण में उल्लेख है राहु से ग्रसित सूर्य ग्रहण में
अक्रूर घाट पर स्नान करते हैं, तो राजसूय अश्वमेघ यज्ञ करने जैसा फल प्राप्त होता है।
वास्तविक वृंदावन
माना जाता है कि असली वृंदावन समय के साथ लुप्त हो गया था। साथ ही लीला स्थलियां भी। ये भी कहते हैं कि वर्तमान वृंदावन असली या प्राचीन वृंदावन नहीं है। वह शायद गोवर्धन के करीब था।
हरिवंश पुराण, श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण आदि में वृंदावन की महिमा के बारे में बताया गया है तो कालिदास ने रघुवंश में इंदुमती- स्वयंवर के प्रसंग में इसका उल्लेख किया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंदजी कुटुंबियों और सजातीयों के साथ गोकुल से वृंदावन रहने के लिए आ गए थे।
रहस्यमयी निधिवन
वृंदावन की सबसे रहस्यमयी जगह है निधिवन। अजीबोगरीब तरीके से झुके हुए वृक्षों का बगीचा। ऐसा लगता
है कि हर वृक्ष की डाली नृत्य मुद्रा में है। माना जाता है कि भगवान कृष्ण आज भी हर रात निधिवन में आते हैं
और राधा के साथ रास रचाते हैं। बाग के बीचों-बीच एक मंदिर है, जिसमें एक शय्या लोगों के आकर्षण का केंद्र रहती है। कहा जाता है कि बांके बिहारी जी की असल मूर्ति इसी वन में प्रकट हुई थी। रात के समय यहां प्रवेश मना है। कहा तो यहां तक जाता है कि दिन के समय निधिवन में वास करने वाले बंदर, पक्षी और
अन्य प्राणी
यहां से कहीं और चले जाते हैं। हाल के कुछ दशकों में यहां कई आकर्षक मंदिरों का निर्माण हुआ है। इनमें कृष्ण
बलराम इस्कॉन मंदिर, प्रेम मंदिर, राधा वल्लभ मंदिर आदि उल्लेखनीय हैं। यहां का विशालतम मंदिर रंगजी
के नाम से प्रसिद्ध है। कृष्ण बलराम मंदिर (इस्कॉन टेंपल) को यहां के लोग अंग्रेजों का मंदिर भी कहते हैं।
दुनियाभर में यूं तो इस्कॉन मंदिरों की श्रृंखला है, लेकिन वृंदावन की इस मंदिर की बात ही निराली है। यहां
आमतौर पर लोग नाचते-गाते और आनंद में लीन लगते हैं। इस्कॉन द्वारा अब वृंदावन में ही दुनिया के सबसे
ऊंचे (करीब दो सौ मीटर) चंद्रोदय मंदिर का निर्माण भी कराया जा रहा है। प्रेम मंदिर अपनी वास्तुकला और
दीवारों पर उकेरी भव्य कला से मन मोह लेता है।
देश-विदेश में प्रसिद्ध कृपालु महाराज द्वारा बनवाया गया यह मंदिर हर मायने में खासा सुंदर और बेहद साफ-सुथरा है। यहां कृष्ण की अप्रतिम झांकियां हैं। प्रेम मंदिर परिसर बेहद दर्शनीय है। हां, अगर आपने इसे रात में जगमगाते हुए नहीं देखा, तो यकीन मानिए कि एक शानदार अनुभव से वंचित रह जाएंगे। साध्वी ऋतंबरा का वात्सल्य ग्राम भी वृंदावन के खास आकर्षणों में से एक है। लंबे भू-भाग पर बसा यह आश्रम अनाथ बच्चों को आश्रय देता है। यहां की व्यवस्था प्राचीन गुरुकुलों की तरह कीगई है। हां, यहां की चाट और वृंदावनी लस्सी का भी जवाब नहीं। कृष्ण की इस नगरी में गए और लस्सी नहीं पीया, तो क्या किया। वृंदावन की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यहां आने के बाद यह आपके अंदर बस जाएगा और हमेशा याद आता रहेगा।
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